दादी ने अपना वाक्य बीच में ही अधूरा छोड़ दिया था.. छोटी ट्रे उठा कर उधर ही चल दी थीं। मैं भी कमरे में आ गई थी। चाची मेरी चाय छानने लगी थीं। कमरे के बाहर जाती छोटी की पींठ की तरफ चाची देखती रहती हैं।
चाची की आवाज थकी सी लगती हैं,’’शिव ऊँची-ऊँची बातें करते थे... आदर्शों की, पारिवारिक मूल्यों की, सिन्सियरिटी और सच्चाई की। मुझे शिव का उपदेश सा देता महानता भरा स्वर, बात करने का वह ढंग अच्छा नहीं लगता था। पर फिर यह भी लगता कि शिव और मैं दो अलग तरह के इंसान हैं। पर उन बातों को सच मान मुझे शिव के एकनिष्ठ प्यार पर भरोसा था,’’ चाची फीका सा मुस्कराती है.“फिर जब कभी शिव की बातों से,उनके व्यक्तित्व से ऊब बढ़ जाती तो लगता जैसे गले में शिव के प्यार का फंदा पड़ा हो। मेरा दम घुटता...’’ चाची की आवाज़ कांपने लगती है, “लगता अगर शिव मुझे इतना प्यार न करते होते तो कितना सरल हो जाता मेरे लिए, मैं छुटकारा तो पा लेती...चली जाती छोड़कर...” चाची फिर खिसियाया सा हंसती हैं ‘‘इंसान अपने आप को ही कितना कम जानता है अमृता...जब सामने इतना बड़ा जीता जागता सवा पाँच फीट का कारण आ कर खड़ा हो गया तब भी मैं यह घर छोड़कर कहाँ गई...’’ चाची झुक कर अपने पैरों को देखती रहती हैं।
मेरी आँखें भर आती हैं। मन करता हैं उनके दुखते मन को सहला दूँ। मैं धीमें से उनके घुटने पर अपना हाथ रखती हूँ। चाची चौंक कर मेरी तरफ देखती हैं। उनके स्वर में आज़िज़ी हैं,‘‘उन बातों के भ्रम में एक दो नहीं चौदह साल गुज़र गए थे अमृता ,मैंने कुछ और देखने समझने की ज़रूरत ही महसूस नहीं की थी.. शिव की बातों को ही असली शिव समझने की भूल करती रही मैं।” चाची अचानक चुप हो जाती हैं। उनका चेहरा सफेद पड़ने लगता है और होंठ कॉपने लगते हैं।
मैं घबरा कर खड़ी हो गई थी,‘‘चाची आप ठीक तो हैं।”
चाची ने मुझे हाथ के इशारे से बैंठा दिया था। उनका भीगा स्वर,‘‘फिर अचानक शिव की बातें बड़ी खोखली लगने लगी थीं मुझे। अपने और शिव के बीच में और औरतों की गंध आने लगी थी। यह भी समझ आने लगा था कि कुछ भी नया नहीं हैं, बस मैं ही बेखबर थी।” चाची फिर खिसियाया सा हँसती हैं,’’मुझे दुखी देखता तो बंटी समझता मैं पापा से बहुत ज्यादा की उम्मीद कर रही हूँ। मेरा बेटा था इसलिए रीज़न भी करता। कहता ‘‘पापा जैसे हैं, वैसे हैं। उससे ज्यादा की उम्मीद रखना उन पर ज़्यादती करना है। शायद वह जो कहना चाहता था एकदम सही था। पर बात शिव जो हैं उनके वह होने की या न होने की या जो वह नहीं थे वैसा होने की उम्मीद करने की नहीं थी। बात शिव जो कुछ कर रहे थे उसकी थी। पर मैं बंटी से क्या कहती। वैसे भी मेरे पास कोई प्रूफ तो था नहीं।” चाची जैसे फुसफुसा रही हों,‘‘बड़ी अकेली हो गई थी मैं। उसकी नजर में भी शिव नहीं मैं गलत थी क्योंकि नाराज़ मैं थी शिव से, वे तो पूरी तरह से प्रसन्न थे। एकदम परितृप्त।”
चाची मेरी तरफ देखती भर हैं,‘‘अमृता मैंने उन पिछले सालों में बहुत अच्छी औरत बनने की कोशिश में कब कहाँ और कैसे अपने अंदर की ऊर्जा, अन्याय के विरूद्ध विद्रोह करने की वह ताकत, अपने अंदर की फायर खो दी थी। मैं जैसे मैं नहीं रही थी। शिव की तरफ से मोहभंग हुआ तो लगा श्रीहीन होकर जी रही हूँ। सीधे शब्दों में आत्म सम्मान खोकर जीना लगने लगा था। अपने ऊपर झुंझलाहट होती...मैं किसके लिए, कैसे लोगों के लिए सहनशील पत्नी, आदर्श बहू, पेशेन्ट सफरर बन कर जी रही हूँ।” चाची अपने स्वर को संयत कर सुस्त सा मुस्कुराती हैं,‘‘सच बात यह है अमृता कि मैं इनमें से कुछ भी नहीं रह गई थी, न प्रेम करने वाली पत्नी, न आदर्श बहू, न मुझमें पेशेन्स ही रह गया था। बस इतने वर्षों से झुके-झुके सीधे हो पाने की हिम्मत खो दी थी मैंने। अपने अंदर की उस फायर को जगाने के प्रयास में मेरे अंदर का क्रोध जिंदा होने लगा था। उतने वर्षो का अन्याय झूठ, आदर्शों के वह नाटक, ओढ़ा हुआ वह बड़प्पन...सब कुछ। मेरे अंदर, एक ज्वालामुखी धधकने लगा था। उसी बीच एक दिन सबेरे-सबेरे दरवाजे पर आकर छोटी खड़ी हो गयी थी। शिव इलाहाबाद गए हुए थे।सोचा कोई क्लाइन्ट होगी शिव की...पर न जाने क्यों मैं उससे बात करने के लिए खड़ी हो गई थी... डरा सहमा सा चेहरा। वकील साहब घर पर नहीं हैं सुन कर भी खड़ी रही थी. जैसे लौटना संभव ही न हो। मैंने उससे उसकी परेशानी का कारण जानना चाहा था। बताया था कि वकील साहब की पत्नी हूँ। अगर उसे कुछ मदद चाहिए हो तो बताए और, उसकी आँखों से जैसे आसुँओं का बाँध फट पड़ा था। मैने उसे अंदर बुला लिया था। जो उसने बताया था और जो वह नहीं बता पाई थी उससे टुकड़े-टुकड़े में इतना समझी थी कि वह शिव की क्लाइंट हैं, विधवा है, पट्टीदारों से प्रापर्टी का मुकदमा चल रहा है। वह मेरे सामने जैसे सफाई में गिड़गिड़ा रही थी ‘‘वकील साहब ने मुझे यह नहीं बताया था कि उनकी पत्नी हैं, भरा पूरा परिवार है,’’ चाची क्षण भर को अटकती है,‘‘बात उतनी सीधी नहीं थी अमृता, अपने घर से चले आने के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं बचा था।” चाची चुप हो जाती हैं।
‘‘फिर ?’’मुझे पता हैं फिर क्या हुआ था. फिर भी मेरे मुँह से अनायास प्रश्न निकला था, ‘‘फिर’’
चाची के चेहरे पर कातर सी मुस्कान आती है,‘‘फिर मैने गैस्ट रूप के बगल वाला कमरा ठीक करा दिया था।’’
‘‘बंटी ने एतराज नहीं किया था?’’
चाची फिर फींका सा मुस्कुराती है,‘‘पूछा था यह कौन है? क्या बताती कि वह कौन हैं। पर हर बात हर किसी को सिलसिलेवार बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती अमृता...सच टुकड़ो-टुकड़ो में अपने आप उजागर हो जाता हैं...पूरा का पूरा...सबके सामने” चाची जैसे आत्मलाप कर रही हैं,‘‘और ऐसे किस्से तो अपरिचितों तक के लिए चर्चा की बात बनते हैं।”
चाची की आँखों से आँसू गिर रहे हैं,’’अगले दिन शिव लौटे थे। छोटी को बैठा देखकर एकदम सकपका गए थे। मेरे पीछे-पीछे मेरे कमरे में आए थे। पूछा क्यों आई है यह औरत यहाँ पर। बात की तो मेरे ऊपर गुर्राए भी, मुझे धमकाया भी, आँखे भी तरेरी...फिर मनाया भी...गिड़गिड़ाए भी। कहा झूठ बोलती है यह औरत..फिर भी तुम्हारी तसल्ली के लिए तुमसे माँफी माँग सकता हूँ। तुम्हे ऐसे लगता ही हैं तो मेरी सफाई देने से नहीं मानोगी तुम...चलो अपनी जिंदगी की नई शुरूआत करते हैं.. आगे जैसे चाहोगी रहूँगा मैं..।”
चाची का थका हुआ स्वर जैसे मीलों चलकर..‘‘कितनी आसानी से शिव कुछ भी कर और कुछ भी सोच सकते थे। पर मेरे लिए जिंदगी ताश की बाजी नहीं थी कि पत्ते ग़लत बट गए तो गड्डी मिलाई,दुबारा बाँटा और नई बाजी शुरू कर दी। उनके लिए जीवन सस्ता सा खेल था जिसे मन चाहे ढंग से खेला जा सकता था। सबको पता चला तो परिवार में एक कोहराम सा मच गया था। मेरठ से दादा, भाभी, भोपाल से दीदी दौड़ी चली आई थीं। छोटी की पेशी की गई थी। कहा गया था इसे निकाल फेंको घर से। पर मैं अड़ गई थी। अपने निणर्य के साथ पहली बार तुम्हारे घर वालों के सामने विरोध में खड़ी हो गई थी। बताओं न अमृता उस हाल में मैं उसे कहाँ फेंक देती?’’
मैं बेचैन हो जाती हूँ,‘‘कैसे सह पाईं आप इतना? कैसे कर पाईं आप इतना बड़ा त्याग?’’
चाची कुछ क्षण सोचती रहती हैं जैसे अपने आप से सवाल जवाब कर रही हों। आँखे पोछ कर वह फींका सा हंसी थीं,‘‘नहीं अमृता झूठ नहीं बोलूँगी वह त्याग नहीं था। बहुत स्पानटेनियस सा एक्शन था वह। अन्याय के विरूद्ध किसी को न्याय दिलाने का।“ चाची फिर जैसे कुछ सोंचती हैं,‘‘नहीं खाली वह भी नहीं। शायद...शायद वह एक प्रतिशोध भी था...शायद मैंने छोटी को तुम्हारे चाचा के विरूद्ध...पूरे राठौर परिवार के विरूद्ध एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया था। शायद...शायद...’’ चाची अपने सिर को झटका देती हैं,‘‘मुझे नहीं पता अमृता मैंने क्यों और कैसे इतना बड़ा निर्णय ले लिया था। शायद मैं उस समय कुछ सोच और समझ पाने की मनः स्थिति में ही नहीं थी।”
‘‘बंटी को..’’ मैं अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाती, हकला जाती हूँ।
चाची मेरी बात बीच में काट देती हैं,‘‘हाँ अमृता! बंटी को मैने बहुत बड़ी चोट दे दी थी। उसके कोमल मन के लिए वह बोझा बहुत बड़ा था...पर कहा न वह एक स्पान्टेनियस सा एक्शन था...मेरे मन के पास कुछ सोंचने का समय ही नहीं था।” चाची बड़ी देर तक चुप रहती है, “पर उस ताप में वह खरा ही हुआ था शायद। दादा, भाभी, दीदी सब हार कर वापिस चले गए थे। बंटी के इम्तहान चल रहे थे। मैं एकदम टूट चुकी थी...स्थितियों से, घर के लोगों से...अपने आप से जूझते मैं पस्त हो चुकी थी। मुझे लग रहा था बंटी की अपराधी हूँ मैं...एक अकेले उसकी अपराधी....इसलिए उससे बात करना ज़रूरी था। उसके कमरे में गई थी। वह अचानक बड़ा हो चुका था, बेहद समझदार। मैं उसके पास जाकर खड़ी हो गयी थी.. मैंने उससे ‘‘सारी” बोला था।’’
‘‘वाई शुड यू बी सॉरी” वह उठ कर खड़ा हो गया था,’’और तुम परेशान मत हो...मैं एकदम ठीक हूँ।” वह मुस्कुराया था,“तुम्हारा बेटा हूँ न” बंटी मेरे गले से लग गया था,‘‘आई एम प्राउड ऑफ यू माँ। इतना बड़ा होने के बाद वह पहली बार मेरे गले से लगा था वैसै । बंटी आहत था... पर मुझे संतोष था कि वह सत्य के साथ जीना सीख चुका था। बंटी ने मेरे निर्णय को स्वीकारा और सराहा था। जो थोड़ी बहुत ऊहापोह मन में रह भी गई हो वह समाप्त हो गई थी।”
‘‘चाची आप घर छोड़कर...’’
‘‘हाँ अमृता.. यूनिवर्सिटी में अनु ने भी यही कहा था..क्यों रह रही हो उस घर में। कैसे रह पा रही हो? पर इतने वर्षो ने मेरी सोच को बदल दिया था। स्थितियों से जूझने के मेरे तरीके को भी। लगा था क्यों छोडू यह घर। लगा था गलती आदमी करता है, घर औरत क्यों छोड़ती हैं। क्यों छोड़ना पड़ता है उसे घर। घर तो वही बनाती संवारती हैं न। मुझे लगा था मैं इस घर के बिना नहीं जी सकती। शिव से, शिव के घर वालों से मैं उबर चुकी थी। पर यह घर, इस घर की एक-एक दीवार, एक-एक कोना मेरा बिम्ब था। घर छोड़ने की सोंच से मेरा दिल फटने लगा था।” चाची अपने दोनों हाथों का क्रास बना कर अपने सीने पर रख लेती हैं,‘‘आई कूड फील दैट लॉस, दैट पेन हिअर।”
चाची मेरी तरफ को झुक जाती हैं। मेरे चेहरे पर टिकी उनकी आँखें और बड़ी लगती हैं ‘‘समझ रही हो न अमृता?.’’ चाची की आवाज में थकान हैं,‘‘मैं अपने आप को और बंटी को और तकलीफ नहीं देना चाहती थी इसलिए घर छोड़ने की बात दिमाग से निकाल दी थी। सच कहूँ तो मैंने वैसा करने की जरूरत ही महसूस नहीं की थी। कभी यह लगा ही नहीं कि यह घर मेरा नहीं शिव का है। यह भी नहीं लगा था कि शिव से टूट कर मुझे घर छोड़ देना चाहिये। बन्टी मेरे पास था, मेरे साथ था। घर छोड़ने की माँग उसने भी नहीं की थी। बस अपने पापा से कतराने लगा था, अपनी दादी से भी। वह मेरे इर्द-गिर्द रहने लगा था और मैं उसके।” चाची चुप हो जाती हैं। बड़ी देर तक चुप रहती हैं।
चाची अपनी आँखें पोंछ मेरी तरफ देखती हैं,‘‘अगर शिव सच में किसी से इनवाल्व हो जाते तो टूटती मैं तब भी। पर शिव को खोने का दर्द तो रह जाता दिल में…”चाची
काफी देर तक चुप रहती हैं। मेरी तरफ देखा था तो उनकी आंखों में आंसू तैरने लगे थे,“पर शिव ने जो कुछ किया था वह बेहद ही घटिया हरकत थी। मुझे अपने आप से घिन
आने लगी थी कि इतने सालों तक कैसे इंसान के साथ रहती रही थी।”
इस बार चाची के पास आकर सम्बन्धों के अलग-अलग आयाम परत दर परत मेरे सामने कितने भिन्न ढंग से खुलते गए हैं। इन कुछ महीनों में मेरी सोच को कितना परिपक्व, कितना गहरा बना दिया है। चाची से मुझे हमेशा प्यार महसूस हुआ है। वह मुझे हमेशा अच्छी लगी हैं पर इस बार वह मुझे भिन्न ढंग से अपनी सी लगने लगी हैं...बेहद आत्मीय। लगता हैं जैसे मैं उनके अकेलेपन में शामिल हूँ। और छोटी! उसके लिए मैं मन में कितना क्रोध लेकर इस घर में आई थी। पर उनको देख कर मन में तमाम भाव आते हैं...पर उसमें क्रोध नहीं होता...कतई भी नहीं।
सुबह से घर में छोटी की पुकार शुरू हो जाती हैं और वह घर में चकरघिन्नी की तरह दौड़ती रहती हैं। दादी की आवाज में तीखी हिकारत होती हैं। घर में थोड़े से लोग हैं पर सुबह सात बजे से ग्यारह बजे तक सबका अलग-अलग किश्तों में नाश्ता बनता और लगता रहता हैं। दादी अपनी खटुलिया पर बैठी अपनी दमखम भरी आवाज में उन्हें क्षण-क्षण निर्देश सुनाती रहती हैं...छोटी... छोटी...छोटी। जिस नाते वे इस घर में रह रही हैं वे भी चाची ही होती हैं। उनका असली नाम क्या हैं मुझे पता नहीं...पता करने की कोई जरूरत भी महसूस नहीं होती। छोटी के अलावा उनके लिए कोई संज्ञा मन में आती ही नहीं। सभी तो उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं...घर की बूढ़ी महाराजिन तक। चाची के कितने नाम हैं...गार्गी...बहू...माँ...ममा...मालकिन...मिसेज राठौर।
समझ में नहीं आता इस घर में कितने काम हैं जो हर समय छोटी दौड़ती रहती है और उनकी पुकार होती रहती हैं। नौकर चाकर ऊपर से हैं ही। यह भी समझ नहीं आता कि वे जब घर में नहीं थी तो यह घर कैसे चलता था..पर अब तो सब कुछ बहुत सरल, सधे ढंग से चलता रहता है। छोटी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। कोई प्रतिक्रिया मैंने नहीं देखी। न कोई खुशी, न उत्साह,न दुख, न क्रोध। एकदम सपाट चेहरा हैं उनका । कभी-कभी घण्टों छोटी का चेहरा मेरे दिमाग में घूमता रहता हैं। उन्हें देखकर मन में अजब सी पीड़ा होती हैं। कैसे रहती हैं वे यहाँ।
आजकल लगभग रोज़ ही छोटी से बातचीत हो जाती है। दो बजे तक मैं वापिस आ जाती हूँ।
उस दिन लौट कर आई तो घर में सन्नाटा पड़ा था। दादी अपने कमरे में सो रही हैं। चाची, बंटी और चाचा अभी लौट कर नहीं आए हैं। लौटते पर काफी भीग गई थी इसलिए चाय की इच्छा होने लगी। चौके में जा कर चाय का पानी चढ़ाया तो शायद खटर-पटर की आवाज सुन कर छोटी दौड़ी हुई आ गई थीं। किचेन में मुझे देखकर चौंकी थी,‘‘अरे आप ?’’
‘‘हाँ, चाय बना रही थी। आप पीजिएगा चाय तो पानी बढ़ा दूँ?’’
शायद उन्होंने मुझसे इस सद्भाव की अपेक्षा नहीं की थी। शायद उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आई थी,‘‘नहीं आप पीजिए। मेरा तो आज व्रत है।”
मै अपनी चाय लेकर डाइनिंग टेबल पर आ गई थी। वे ट्रे में दालमोठ, और बिस्किट निकाल लाई थीं।
‘‘थैंक्यू। नहीं मैं कुछ खाऊँगी नहीं”
वे असमंजस में खड़ी रही थीं। मैने उनकी तरफ देखा था और पास पड़ी कुर्सी पीछे को सरकाई थी ‘‘बैठिए...।”
चेहरे पर छाए उसी असमंजस के भाव के बीच वे धीरे से मुस्कराई थीं और बैठ गई थीं।
मुझे बातचीत का सूत्र पकड़े रहना अनिवार्य लगता है..‘‘आज कौन सा दिन है?’’
‘‘आज बृहस्पति है”
‘‘ओ हाँ..आज तो थर्सडे है। आज का व्रत किस चीज के लिए रखा जाता है?’’ मैं हँसती हूँ... मेरे स्वर में चुलबुलाहट आ गई थी,‘‘ओ हॉ। आज का व्रत तो भई अच्छा पति पाने के लिए रखा जाता है।” वाक्य मुंह से निकलते ही मैं धक्क से रह जाती हूँ.. मैं संवाद को जीवित रखना चाहती थी और अन्जाने ही मैंने जैसे उन्हें चिढ़ाया हो। वे खिसिया जाती हैं,उनसे अधिक मैं,‘‘आई एम सॉरी, मेरा मतलब वह नहीं था।” अनायास मेरे मुँह से निकला था। फिर मुझे लगा था कि मैंने तो बात और भी अधिक फूहड़ कर दी।
वह फीका सा मुस्कुराती हैं,‘‘नहीं कोई बात नहीं।” फिर बड़ी देर तक हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोलता।
वह मौन उन्होंने ही तोड़ा था। उनका स्वर रूआंसा हो गया था,‘‘मै यह व्रत अपने बेटे की याद में रखती हूँ। आज ही के दिन वह पैदा हुआ था और हफ्ते भर बाद आज ही के दिन चला गया।”
मैं स्तब्ध रह जाती हूँ। उनकी तरफ देखती हूँ। उनकी ऑखों में ऑसू हैं। मैं उनके हाथ पर अपना हाथ रख देती हूँ। मेरा स्वर अभी भी खिसियाया हुआ है,‘‘क्या हो गया था उसे?’’
‘‘पता नहीं। शायद बहुत समझदार था वह, हफ्ते भर में मुझे और अपने आप को आगे के झंझट से मुक्त कर गया।”
तीसरा भाग
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