Wednesday, June 22, 2016

दूसरी बार न्याय- 1

फिर से....
ब्लाग की इस दुनिया में लगभग सात साल बाद फिर से लौटी हूं। जिन लोगों ने भी मेरा स्वागत किया था वे मेरे लिए सोच सकते हैं कि इन की तो बीच बीच में सो जाने की आदत है। शायद आप लोग ग़लत भी नही हैं-मुझे नही पता कि मैं अपनी सफाई में क्या कह सकती हूं-पर क्योंकि फिर से आपके बीच उपस्थित होना चाहती हूं इसलिए स्पष्टीकरण तो मुझे देना ही होगा-अपने दोष को सिर माथे लगाते हुए इतना ही कहना चाहूंगी कि-कुछ करनी कुछ करम गतिकरनी को सुधारा जा सकता है पर करम गति के लिए कोई क्या करे। उस बारे में हाल फिलहाल अधिक कुछ नही कहना चाहूंगी-अगर ज़रूरत पड़ी तो आगे फिर कभी।
बीते इन सात सालों में इतना सही हुआ कि मैंने अपनी कलम का साथ पिछली बार की तरह नही छोड़ा। लिखने और छपने का काम मैं करती रही हूं। इस बीच कथादेश हंस नया ज्ञानोदय समकालीन भारतीय साहित्य आदि में कहानियां छपती रही हैं। भारतीय ज्ञानपीठ और पैन्गुइन बुक्स से एक एक कहानी संग्रह और सामयिक बुक्स से एक उपन्यास इस बीच में छप चुका है। एक अन्य उपन्यास सामयिक बुक्स से प्रकाशनाधीन है। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास पूरा लिख चुकी हूं। थोडे दिन तक उसे अपने पास रख कर उसे कहीं विचारार्थ भेजने का इरादा है। उपन्यास लिखने और छपने में इतना अधिक समय ख़र्च हो जाता है कि जल्दी जल्दी कहानियों का लिख पाना संभव नही हो पाता। मुझे नही पता कि पाठक से अधिक जुड़ पाने के लिए क्या बेहतर है छोटे अंतराल पर कहानियां का छपते रहना या 250-300 पन्नों के उपन्यास के साथ कभी कभी सामने आना।
अपनी बात छोटी ही रखूंगी। तीस साल के अंतराल के बाद दुबारा लिखना शुरू करने के बाद छपी कहानियां आपको पढ़ाना चाहती हूं। जिस क्रम में यह कहानियां छपी हैं उसी तरह से मैं इन्हे दे रही हूं। अपने लेखन की इस नयी शुरूआत के बाद “दूसरी बार न्याय मेरी सबसे पहली कहानी है। लेखक जो भी लिखता है प्रायः उसका कोई न कोई सूत्र उसके अनुभव के संसार से जुड़ा होता है-पूरी कहानी नही तो उसका कोई प्रसंग-कोई प्रकरण--कुछ नही तो कोई पात्र ही सही। पर यह कहानी पूरी की पूरी-शुरू से ले कर अंत तक काल्पनिक है-इसका कोई पात्र कोई घटना मेरे अनुभव से गुज़र कर मेरे पास नही पहुंचा है। पता नही क्यों बीसियों साल से यह कथानक कहीं मन के पिछवाड़े पड़ा हुआ था। इसे लिखना कठिन लगा था पर इसे पूरा करके मैंने संतोष महसूस किया था-एक अद्भुत क्रिएटिव सैटिसफैक्शन। इसे और बेहतर लिखा जाना चाहिए था का कोई मलाल मन में नही था।


दूसरी बार न्याय

   अभी हफ्ता भर पहले ही तो मैं लखनऊ से मेरठ आई थी। चाचा के घर में सब कुछ ठीक ठाक ही था। ऐसी किसी भी अनहोनी की कोई भी तो गंध महसूस नहीं की थी मैंने। इन सात दिनों में ऐसा क्या हो गया?  कैसे हुआ यह सबपापा मम्मी तीन दिन लखनऊ  रह कर लौट आये हैं। पापा बेहद पस्तपराजित और झल्लाये हुये से हैं। मम्मी की परेशानीउन्हें देख कर समझ नहीं आता कि सच में परेशान हैं या स्थितियों का मजा ले रही हैं या दोनो कुछ साथ में है। वैसे भी मम्मी मुझे कभी भी चाची के लिये संवेदनशील नहीं लग पायी हैं।
     मेरी तो अधिकांश पढाईं चाची के पास रह कर ही हुयी है और अब नौकरी। वहॉ मुझे करीब चार महीने बाद ज्वायन करना है। चाची के साथ रहकर नौकरी करने की कल्पना मात्र ही मुझे खुशी से भर गई थी। पर अब चाचा के घर जो कुछ हुआ है उसे सुन कर मैंने मम्मी से साफ कह दिया था कि मुझे लखनऊ नहीं जाना। किसी भी और शहर के किसी भी कॉलेज में चली जाँऊगी। पापा ने सुना तो बौखला गए थे। पापा के अनुसार आज भी वह कॉलेज लखनऊ का ही नहीं यू.पीका भी बेस्ट कॉलेज है। फिर लखनऊ एक समझा बूझा शहर हैं। गनीमत है पापा ने हमेशा की तरह लखनऊ पुरखों की देहरी है वाली बात नहीं दुहराई थीनहीं तो शायद मेरे मुंह से कुछ कड़वाकुछ ऐसा जो मुझे नहीं कहना चाहिएनिकल जाता। पापा मेरा ज़िद्दी स्वभाव जानते हैं। मेरी उस आदत से शायद घबराते भी हैं। इसलिए काफी देर डॉटकर एकदम ढीले पड़ गए थे,‘‘अरे भाई तुम्हें अपना कैरियर देखना है। लखनऊ जाओ। किसी भी अच्छी जगह तुम्हारे रहने का इंतजाम करा देंगे। मन  हो तो मत जाना चाचा के घर।”
    उसके बाद मैं अपने कमरे में चली आई थी। मम्मी पापा बड़ी देर तक चाची का नाम लेकर बड़बड़ाते रहे थे,‘‘हद कर दी गार्गी ने। कोई ऐसा भी कर सकता है।  अपना सोचा बच्चों का शिव का घर की इज्ज़त का पापा गुर्राए थे।
    मम्मी ने ताना दिया था,‘‘आप ही को गार्गी बहुत शांतबहुत समझदार और  जाने क्या-क्या लगती रही है। हम तो हमेशा कहते थे कि बहुत जिद्दी और अपने मन की है।
    पापा झुझंलाए थे,‘‘ठीक तारीफ तो करता था। शिव जैसे इंसान के साथ रहना आसान है क्याऊपर से अम्मा के तेवर।
    मम्मी चिड़चिड़ा पड़ी थीं,‘‘यह भी कोई साथ रहना हैअलग-अलग’’
    पापा ने टी0वीआन कर दिया हैइसलिए आगे की बात मैं सुन नहीं पायी।
    मुझे अजीब लगा था। कैसे लोग हैं यह। चाचा पर नाराज़  होकर चाची को दोष दे रहे हैं। चाचा और चाची के चर्चे पहले भी इस घर में अक्सर होते रहे हैं। जब तब पापा को कहते सुना हैं कि “लाला यह काम बड़ी अक्लमंदी का कर गए कि शिवेन्द्र की शादी गार्गी से करा दी।” मुझे हर बार पापा की वह तसल्ली बड़ी कुटिल लगती।
   सुना है चाचा के लिए बाबा ने चाची के घर खुद रिश्ता भेजा था। बाबा शहर की जानी मानी हस्ती थेइसलिए चाची के घर सबका खुश होना स्वाभाविक ही था। मगर सच बात यह है कि घर के भंडार अंदर से खाली हो चले थे। सब कुछ बाबा की शराब और रेसकोर्स की भेंट चढ़ चुका था। पापा बाबा की दूरदर्शिता की तारीफ करते नहीं थकते, ‘‘लाला जानते थे कि शिव कुछ खास कर नहीं पाएगे। गार्गी भी बहुत समझदार निकली। अपनी नौकरीघर के कामपुरखों की उस देहरी के स्टेटसशिव और अम्मा के मिज़ाजसबको खूब संभाल लिया उसने।’’
    मुझे हमेशा लगता था कि चाची इससे बेहतर जीवन और जीवन साथी डिसर्व करती थीं। एक बार मम्मी से कुछ ऐसा ही कह दिया था तो चिढ़ गई थी वे,‘‘क्यों क्या कमी है शिव मेंफिर ऐसी भी क्या खासियत है गार्गी मेंयूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं तो क्याबहुत सी औरते करती हैं नौकरीऔर अगर है भी खासियत तो यह तो गार्गी के घरवालों की प्राब्लम थी। उन्हें देखना तोलना चाहिए था। हम लोग तो जाकर यह कहते नहीं कि तुम्हारी लड़की बेहतर है हमारे लड़के से।
    मम्मी शायद कुछ ग़लत नहीं कहतीं। पर फिर भी मुझे उनकी सोच बहुत असंवेदनशील लगती है। वैसे इस मुद्दे पर मम्मी से बहस नहीं की जा सकती। मम्मी चाची की सुपिरियारिटी को स्वीकार नहीं कर पाएंगीशायद समझ भी नहीं पाऐंगी। चाची से मैंने कुछ दिन के लिए अंग्रेजी पढ़ी थी। तब वे एक भिन्न रूप में मेरे सामने आई थीं। जब वे पढ़ाती मैं मुग्ध भाव से उनको देखती सुनती रह जाती। भाषा पर उनकी पकड़भावों की गहराई तक उतर कर अर्थ को समझाने की कलाकिसी भी प्रसंग को उसके ऐतिहासिक संदर्भ के साथ व्याख्या करने का ज्ञानउनकी आँखों की चमकचेहरे पर आते वे उतार-चढ़ाव। मैं मुग्ध हो जाती। थोड़ी ही देर बाद उनको किचनघर के कामों में उलझा देखती तो लगता कैसे इतने शांत सहज भाव से भिन्न-भिन्न भूमिकाओं का निर्वाह कर लेती हैं। चाची जैसे मेरी रोल मॉडल बन गयी थीं। अजब सा अंतरंग मित्र भाव रहा है मेरा उनके साथ। जब हम दोनो साथ होते हैं तो उम्र और रिश्तें दोनो ही दूरियों को एकदम भूल जाते हैं।


    जब से लखनऊ आई हूँ तब से चाचा का घरचाचीवे सब लोग दिमाग में घूमते रहते हैं। इसी शहर में अपना घरअपने लोग हैंफिर भी। मेरा मन भर आता है। तभी देखा गेट से चाचा की गाड़ी अंदर  रही हैं। लगा था सारा खून उछल कर सिर पर हथौडे़ सा चोट कर रहा हैं। चाची का सामना कैसे करूगीकैसी हो गई होंगी वे अब?
    चाची मुझे देख हंसती हैं...वही पुरानी हंसी...बेहद प्यार और अपनेपन से भरी। चाची भरी-भरी सी लगती हैंएकदम स्वस्थ और प्रसन्न। मुझे विस्मय का एक झटका लगता है। उनका पांव छूने को झुकी तो उन्होंने मेरी पीठ पर एक धौल लगाकर मुझे बाँहों में भर लिया था,‘‘चलो तुम्हें लेने आई हूँ।”
    मुझसे कुछ कहते नहीं बनता। चाची फिर हंसती हैं,‘‘बिटिया रानी अब इतनी बड़ी हो गईं कि अलग रहेंगी। एकदम अपनी मर्ज़ी की मालिक।” चाची मेरे माथे को अपनी उंगलियों के धक्के से हिलाती हैं,‘‘क्यों मैडम?’’
    मैं अपने इंकार को शब्द नहीं दे पाती। अस्पष्ट सा बुदबुदाती हूँ। पापा मम्मी के सामने जैसे स्पष्ट एलान कर दिया था कि चाचा के घर नहीं जाऊँगी वैसा चाची के सामने नहीं बोल पाती। चाची कुछ क्षण मुझे ध्यान से देखती  हैंजैसे मेरे मन के शब्द पढ़े हों उन्होंने,’’अमृता वह घर चाचा का ही नहीं चाची का भी हैं।
    मेरी सांसों में आँसू के बुलबुले अटकने लगते हैं,‘‘इसीलिए तोइसीलिए तो चाची उस घर में जाने की हिम्मत नहीं होती।
  भारी हो गए माहौल को चाची अपनी हंसी से हल्का कर देती हैं,‘‘क्यों भईक्या वहाँ कोई शेर चीते रहते हैंचलो तो।
    मैं खिड़की के बाहर देखने लगती हूँ। सुबह से हल्का-हल्का पानी बरस रहा हैं। मौसम का भारीपन मन को और बोझिल बना देता है। चाची पलंग पर बैठ जाती हैंउनके सामने की कुर्सी पर मैं। इस समय मन में कितना कुछ घुमड़ रहा है। इतने दिनों से मन ही मन चाची से  जाने कितने सवालकितनी बातेंकितने झगड़े करती रही हूँ,‘‘चाची आपने ऐसा क्यों किया?’’ अपने इस सीधे सवाल से मैं स्वयं अटपटा जाती हूँ।
    ‘‘क्या अमृता?’’ चाची सीधी निगाह से मुझे घूरती हैं।
    ‘‘आपको पता है मैं क्या पूछ रही हूँ।” मैं अपनी निगाहें झुका लेती हूँ।
    चाची फीकां सा हंसती हैं,‘‘हाँ अमृता पता हैं क्या पूंछ रही हो। पर एक बात बताओं,सब लोग... सारा खानदान हमसे ही पूछेगाशिव से कोई कुछ नहीं पूछेगा?’’
    ‘‘चाची” मैं एकदम से अचकचा जाती हूँ।
    चाची जैसे मुझे दिलासा देती हों,‘‘नहीं अमृता मैं तुम्हारी बात नहीं कर रही। छोटी हो तुम। भला तुम क्या कर सकती हो। पर मैं तो बाकी सबकी बात कर रही हूँ...अम्मादादाभाभीदीदी। वे सब-- हमसे ही सवालहमसे ही नाराज़गी कि ऐसा क्यों किया। शिव से अगर कुछ कहा भी गया होगा तो हमारे सामने नहीं कहा गया। फिर कहा भी क्यों होगा। यदि कहने ही वाले होते तो आज..’’ चाची अपनी बात बीच में छोड़ देती हैं। वे बड़ी देर चुप रहती हैं। उनकी निगाहें खिड़की के बाहर भटकती रहती हैं। वे उदास नजरों से मेरी तरफ देखती हैं। उनके स्वर में थकान हैं,‘‘अमृता तुम्हारे इस चार शब्दों के सवाल का जवाब दो वाक्यों में नहीं दे पाऊँगी।“ वे फिर चुप हो जाती हैंकुछ सोंचती रहती हैं,‘‘ शादी हो कर आई तो मन में एक अजब सा रोमैन्टिसिस्म था...पति के लिएपति के घर वालों के लिएउस घर की दीवारों तक के लिए
    चाची खिसियाया सा हंसतीं हैंकुछ सोंचती रहती हैं और मेरी तरफ देखती रहती हैं। बोलती हैं तो उनकी आवाज भर्रा जाती है,‘‘सब खत्म कर दिया शिव ने।.... तुम्हारे घर वालों ने।
    चाची के चेहरे पर वीरानगी है। कितनी तरोताजा और प्रसन्न सी आई थीं वे। मैं चाची के पास खड़े होकर उनके कंधे पर हाथ रख देती हूँ,‘‘चाची छोड़िए। मत करिए वह सब बात,’’ मैं गिड़गिड़ाती हूँ।
  ...और मैं चाची के घर चली आई थी। चाची एकदम पहले जैसी ही हैं। उतना ही प्यारउतना ही अपनापनचेहरे पर वैसा ही शान्त भाव पर फिर भी कहीं लगता है कि चाची बदल गई हैं। अवयक्त ही सही स्वर में एक स्पष्ट ’’अथॉरिटी” हैजो पहले नहीं थी।
   
    घर आई तो हमेशा की तरह दादी अपनी खटुलियॉ पर बैठी थीं। मैं उन्हें प्रणाम कर उनसे वहीं बात करने लगी थी। एक अन्जान लड़की...यहीं कोई छब्बीस सत्ताईस साल कीएक ट्रे में चाय नाश्ता लेकर  गई थी। शायद यही छोटी है। मैं अचकचा जाती हू। चाची अपने कमरे की तरफ मुड़ गई थीं,’’अमृता मेरे कमरे में ही चाय पियेंगी।”

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